हमारे देश की संस्कृति बहुरंगी एवं विविधतापूर्ण है। इसमें अनेक रीति-रिवाज व परंपराएं समाहित हैं जो लोगों को एकसूत्र में बाँधती हैं। त्यौहारों की इस परंपरा में माघ महीने की संक्रांति से एक दिन पहले लोहड़ी (Lohri) का पर्व सारे देश में (मूल रूप से पंजाब में ) उत्साहपूर्वक मनाया जाता है।
लोहड़ी हर्ष और उल्लास का पर्व है। इसका संबंध बदलते मौसम के साथ है। पौष माह की कड़ाके की ठंड से बचने के लिए भाईचारक सांझ और अग्नि की तपिश का आनंद लेने के लिए 'लोहड़ी ' का पर्व मनाया जाता है।
' लोहड़ी' आपसी संबंधों की मधुरता, आनंद, संतोष और प्रेम का प्रतीक है। दुखों से दूर रह कर, प्यार और भाईचारे से मिल जुलकर नफरत को दूर करने का प्रतीक है लोकपर्व 'लोहड़ी'। यह पवित्र अग्नि का त्यौहार मानवता को सीधा रास्ता दिखाने और रुठों को मनाने का सदा से ही माध्यम बनता रहा है और बनता रहेगा।
लोहड़ी शब्द की व्युत्पत्ति ' तिल' और 'रोड़ी ' से मिल कर हुई। समय के साथ साथ से ' तिलोड़ी' और बाद में 'लोहड़ी' कहा जाने लगा। 'लोहड़ी' तीन शब्द - ल (लकड़ी) ,ओह (सूखे उपले) ,और डी (रेवड़ी) की ओर संकेत करते हैं।
'लोहड़ी' का पर्व आने पर पहले 'सुंदर मुंदरिए' दे माई लोहड़ी जीवे तेरी जोड़ी' आदि लोक गीत गाकर घर-घर लोहड़ी मांगने का रिवाज था। समय के साथ 'लोहड़ी' सहित कई पुरानी परंपराओं का आधुनिकीकरण हो गया है। अब पंजाब के ग्रामों में लड़के-लड़कियां लोहड़ी मांगते हुए 'परंपरागत गीत' गाते दिखते। गीतों का स्थान 'डीजे' ने ले लिया।
लोहड़ी की रात को गन्ने के रस की खीर बनाई जाती है और अगले दिन माघी के दिन खाई जाती है जिसके लिए 'पौह रिद्धी माघ खाघी गई' कहा जाता है। ऐसा करना शुभ माना जाता है।
यह त्योहार छोटे बच्चों एवं नव विवाहितों के लिए विशेष महत्व रखता है। लोहड़ी की शाम को प्रज्ज्वलित लकड़ियों के सामने नवविवाहित युगल अपने वैवाहिक जीवन को सुखमय बनाए रखने की कामना करते हैं।
लोहड़ी का संबंध में कई ऐतिहासिक लोक कथायें प्रचलित हैं पर इससे जुड़ी प्रमुख लोककथा 'दुल्ला-भट्टी' की है जो मुगलों के समय का बहादुर योद्धा था, जिसने मुगलों के बढ़ते जुल्म के खिलाफ कदम उठाया।
इस संबंध में जनश्रुति है कि एक ब्राह्मण की दो कन्यायें 'सुंदरी' और ' मुंदरी' थीं। इलाके का मुगल शासक उनसे बलपूर्वक विवाह करना चाहता था। पर उनकी सगाई कहीं और हुई थी। मुगल शासक के डर से उन लड़कियों के ससुराल वाले शादी करने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे।
संकट की इस वेला में 'दुल्ला भट्टी ' ने ब्राह्मण परिवार की सहायता की । उसने लड़के वालों को राजी कर जंगल में आग जलाकर अपनी देख- रेख में ' सुंदरी 'एव 'मुंदरी 'का विवाह संपन्न करवाया। दुल्ले ने खुद ही उन दोनों का कन्यादान किया। 'दुल्ला भट्टी' ने शगुन के रूप में उन दोनों कन्याओं को शक्कर दी थी। लोहड़ी पर गाये जाने वाले इस लोकगीत में इस घटना का संदर्भ मिलता है-
'सुंदर-मुंदरिए हो! तेरा कौन बेचारा हो,
दुल्ला भट्टी वाला हो, दुल्ले ने धी ब्याही हो।
सेर शक्कर पाई-हो, कुड़ी दा लाल पटाका हो,
कुड़ी दा सालू फाटा हो, सालू कौन समेटे हो।
चाचा चूरी कुट्टी हो,जमींदारा लुट्टी हो,
जमींदार सुधाए-हो, बड़े पोले आए हो।
इक पोला रह गया-हो, पूरे विश्व में भारतीय संस्कृति अपना एक अलग स्थान रखती है क्योंकि इसमें अनेक रीति-रिवाज व परंपराएं समाई हैं जो लोगों को करीब लाकर एकसूत्र में बांधती हैं। त्यौहारों की इस शृंखला में माघ महीने की संक्रांति से एक दिन पहले आता है लोहड़ी (Lohri) का पर्व।
लोहड़ी हर्ष और उल्लास का पर्व है। इसका संबंध मौसम के साथ गहरा जुड़ा है। पौष माह की कड़ाके की सर्दी से बचने के लिए भाईचारक सांझ और अग्नि की तपिश का सुकून लेने के लिए लोहड़ी मनाई जाती है।
लोहड़ी रिश्तों की मधुरता, सुकून और प्रेम का प्रतीक है। दुखों का नाश, प्यार और भाईचारे से मिल जुलकर नफरत के बीज का नाश करने का नाम है लोहड़ी। यह पवित्र अग्नि का त्यौहार मानवता को सीधा रास्ता दिखाने और रुठों को मनाने का जरिया बनता रहेगा। लोहड़ी शब्द तिल+रोड़ी के मेल से बना है जो समय के साथ बदल कर तिलोड़ी और बाद में लोहड़ी हो गया। लोहड़ी मुख्यत: तीन शब्दों को जोड़ कर बना है ल (लकड़ी) ओह (सूखे उपले) और डी (रेवड़ी)।
'सुंदर मुंदरिए' को लेकर ये है मान्यता
लोहड़ी के पर्व की दस्तक के साथ ही पहले 'सुंदर मुंदरिए' दे माई लोहड़ी जीवे तेरी जोड़ी आदि लोक गीत गाकर घर-घर लोहड़ी मांगने का रिवाज था। समय बदलने के साथ कई पुरानी रस्मों का आधुनिकीकरण हो गया है। लोहड़ी पर भी इसका प्रभाव पड़ा। अब गांव में लड़के-लड़कियां लोहड़ी मांगते हुए 'परंपरागत गीत' गाते दिखलाई नहीं देते। गीतों का स्थान 'डीजे' ने ले लिया।
लोहड़ी की रात को गन्ने के रस की खीर बनाई जाती है और अगले दिन माघी के दिन खाई जाती है जिसके लिए पौह रिद्धी माघ खाघी गई कहा जाता है। ऐसा करना शुभ माना जाता है।
यह त्यौहार छोटे बच्चों एवं नव विवाहितों के लिए विशेष महत्व रखता है। लोहड़ी की संध्या में जलती लकड़ियों के सामने नवविवाहित जोड़े अपने वैवाहिक जीवन को सुखमय बनाए रखने की कामना करते हैं।
लोहड़ी का संबंध कई ऐतिहासिक लोक कथायें प्रचलित हैं पर इससे जुड़ी प्रमुख लोककथा दुल्ला-भट्टी की है जो मुगलों के समय का बहादुर योद्धा था, जिसने मुगलों के बढ़ते जुल्म के खिलाफ कदम उठाया। कहा जाता है कि एक ब्राह्मण की दो लड़कियां सुंदरी और मुंदरी के साथ इलाके का मुगल शासक जबरन शादी करना चाहता था पर उनकी सगाई कहीं और हुई थी और मुगल शासक के डर से उन लड़कियों के ससुराल वाले शादी के लिए तैयार नहीं हो पा रहे थे।
इस मुसीबत की घड़ी में दुल्ला भट्टी ने ब्राह्मण की मदद की और लड़के वालों को मनाकर एक जंगल में आग जलाकर सुंदरी एव मुंदरी का विवाह करवाया। दुल्ले ने खुद ही उन दोनों का कन्यादान किया। कहावत है कि दुल्ले ने शगुन के रूप में उन दोनों को शक्कर दी थी। इसी कथनी की हिमायत करता लोहड़ी का यह गीत है जिसे लोहड़ी के दिन गाया जाता है।
'सुंदर-मुंदरिए' हो ! तेरा कौन बेचारा हो,
दुल्ला भट्टी वाला हो, दुल्ले ने धी ब्याही हो।
सेर शक्कर पाई-हो, कुड़ी दा लाल पटाका हो,
कुड़ी दा सालू फाटा हो, सालू कौन समेटे हो।
चाचा चूरी कुट्टी हो, जमींदारा लुट्टी हो,
जमींदार सुधाए-हो, बड़े पोले आए हो।
इक पोला रह गया हो,
सिपाही फड़ के लै गया हो।
सिपाही ने मारी ईंट, भावें रो भावें पिट।
सानूं दे दो लोहड़ी, जीवे तेरी जोड़ी।'
'साडे पैरां हेठ रोड़, सानूं छेती-छेती तोर,
साडे पैरां हेठ दहीं, असीं मिलना वी नईं।
साडे पैरां हेठ परात, सानूं उत्तों पै गई रात।
दे माई लोहड़ी, जीवे तेरी जोड़ी।"
मुगलों के जुल्म के विरुद्ध दुल्ला- भट्टी के मानवीय साहसिक कार्य को आज भी ' लोहड़ी' पर स्मरण किया जाता हैं और ' लोहड़ी' को सत्य और साहस की अन्याय पर विजय के रूप में मनाया जाता है। 'लोहड़ी' कृषि से भी संबंधित है। इस समय गेहूं और सरसों की फसलें पूरे शबाब पर होती हैं। परंपरा है कि लोहड़ी के दिन गाँवों युवक- युवतियां अपनी-अपनी टोलियां बनाकर घर-घर जाकर गाते हुए लोहड़ी मांगते हैं-
'दे माई लोहड़ी ,जीवे तेरी जोड़ी।
दे माई पाथी, तेरा पुत चढ़ेगा हाथी। '
गाँव के लोग उन्हें ' लोहड़ी' के रूप में गुड़, रेवड़ी, मूंगफली तिल या पैसे देते हैं। रात को लोग अग्नि में तिल डालते हुए
'ईशर अए दलिदर जाए, दलिदर दी जड़ चुल्हे पाए।' बोलते हुए सभी के स्वस्थ रहने की प्रार्थना करते हैं।
जिस घर में नये शिशु का जन्म होता ही है, वहाँ लोहड़ी का पर्व विशेष उत्साह से मनाया जाता है। लोहड़ी की रात सभी गांव वाले नवजात शिशु के घर आते हैं । लकड़ियां, उपले आदि से अग्नि जलाई जाती है। सभी को गुड़, मूंगफली, रेवड़ी, तिल घानी बांटे जाते हैं। अब आधुनिक सोच के व्यक्ति कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए लड़कियों के जन्म पर भी लोहड़ी मनाते हैं । 'लोहड़ी' की पवित्र आग में तिल डालने के बाद बड़े बुजुर्गों से आशीर्वाद लिया जाता है।