समाचार शीर्षक

सुभाषचंद्र बोस जयंती पर विचार गोष्ठी का आयोजन

राजनीति विज्ञान परिषद्, डी0 वी0 सी0 उरई के तत्वावधान में आज दिनांक 22 जनवरी 2010 को राजनीतिविज्ञान विभाग में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की जसन्ती के पूर्व दिवस पर एक परिचर्चा का आयोजन किया गया। ‘भारतीय स्वाधीनता में सुभाषचन्द्र बोस का योगदान’ विषय पर आयोजित गोष्ठी का आरम्भ मुख्य वक्ता डा0 नगमा खानम ने नेताजी के जीवन से सम्बन्धित घटनाओं को सुनाने के साथ किया। ध्यातव्य है कि डा0 नगमा खामन का शोधकार्य नेताजी सुभाषचन्द्र बोस पर ही आधारित है। डा0 नगमा का कहना था कि नेताजी एक प्रखर वक्ता, मेधावी व्यक्तित्व एवं राष्ट्र के प्रति पूर्णतया समर्पित थे। उनकी नेतृत्व क्षमता के कारण महात्मा गाँधी को भी मुँह की खानी पड़ी और 1936 में त्रिपुरी कांग्रेस में पट्टाभिसीतारमैया को नेताजी के सामने हार का सामना करना पड़ा था। इस हार को महात्मा गाँधी ने अपनी हार स्वीकारा था। इसके बाद भी नेताजी गाँधी जी का बहुत सम्मान करते थे, यहाँ तक कि उन्हें सबसे पहले राष्ट्रपिता की उपाणि देने वाले नेता जी ही थे। विदेशी धरती पर आजाद हिन्द फौज का गठन और उसका नेतृत्व करना नेताजी की सांगठनिक क्षमता को ही दर्शाता है जो अतुलनीय है।
(बाएं से डॉ नीता गुप्ता, मुख्य वक्ता डॉ नगमा खानम, परिषद् अध्यक्ष दानिश जफ़र)


मुख्य अतिथि के रूप में समाजशास्त्र विभागाध्यक्ष डा0 आनन्द खरे ने नेताजी को भारतीय राजनीति का शिखर पुरुष बताया। उनका कहना था कि नेताजी की तुलना तत्कालीन और वर्तमान के किसी भी राजनेता से नहीं की जा सकती है। कोई भी स्वतन्त्रता सेनानी उनके पासंग भी नहीं ठहरता है। युवाओं को आज उनके व्यक्तित्व से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है।
(बाएं से मुख्य अतिथि डॉ आनंद खरे, राजनीती विज्ञान विभागाध्यक्ष डॉ आदित्य कुमार)

राजनीति विज्ञान विभागाध्यक्ष डा0 आदित्य कुमार ने भारतीय स्वतन्त्रता में सशस्त्र संघर्षों के इतिहास पर प्राकाश डालते हुए कहा कि नेताजी द्वारा गठित आजाद हिन्द फौज द्वारा किया गया संघर्ष सर्वाधिक संगठित एवं सशक्त प्रयास था। देश में भी विविध प्रयास किये जाते रहे किन्तु सभी के पीछे कोई न कोई निजी हित छिपे थे। ऐसे में विदेशी धरती पर जाकर सिर्फ देशहित में फौज का गठन और संघर्ष वाकई देशप्रेम की अद्भुत मिसाल है। उन्होंने आगे कहा कि यदि द्वितीय विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों की पराजय न हुई होती तो भारत का भविष्य कुछ और ही होता और जिस भारत का निर्माण होता वह निश्चय ही नेताजी के सपनों का भारत होता।

हिन्दी विभाग के डा0 रामप्रताप सिंह ने कहा कि नेताजी की संकल्पशक्ति और नेतृत्व क्षमता अद्भुत थी। उनके लिए दो पंक्तियाँ ही काफी हैं-‘‘जिस ओर जवानी चलती है, इतिहास वहीं मुड़ जाता है।’’

(डॉ रामप्रताप सिंह)


डा0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने कहा कि नेताजी विवेकानन्द की तरह ही प्रखर चिन्तक और राष्ट्र के प्रति समर्पित व्यक्तित्व थे। हमें उनके व्यक्तित्व से कुछ न कुछ सीख लेने की आवश्यकता है। इस कारण बिना बात के उनकी मृत्यु को विवाद का विषय बनाकर हम नेताजी का ही अपमान कर रहे हैं। यह सभी को भली-भाँति ज्ञात है कि यदि नेताजी देश स्वतन्त्र होने के बाद सामने आ भी गये होते तो अन्तरराष्ट्रीय दवाब के आगे उन्हें अपराधी ही स्वीकार करना होता। इससे अच्छा है कि हम उनके आदर्शों को अपनायें और उस महान व्यक्तित्व को सम्मान दें।

राजनीतिविज्ञान परिषद् के अध्यक्ष दानिश जफर ने कहा कि नेताजी युवाओं के प्रेरणा स्त्रोत हमेशा ही रहेंगे, हम युवाओं को उनसे बहुत कुछ सीखने का प्रयास करना चाहिए।

अंग्रेजी विभाग की डा0 नीता गुप्ता
ने कहा कि आजाद हिन्द फौज में महिलाओं की सहभागिता दर्शाती है कि नेता जी ने महिलाओं को भी बराबरी का दर्जा देकर उन्हें भी पर्याप्त सम्मान दिया था। आज लोगों को इस बात से भी सीख लेने का प्रयास करना चाहिए।

परिचर्चा की अध्यक्षता कर रहे हिन्दी विभाग के डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव ने कहा कि भारतीय राजनीति के अलावा भी विश्व राजनीति में नेताजी जैसे व्यक्तित्व के दर्शन होना दुर्लभ है। यह हमारे देश का सौभाग्य है कि हमें नेताजी जैसा संघर्षशील, प्रखर और कुशल नेतृत्वकर्ता मिला जिसने अपनी क्षमताओं से तत्कालीन आई0सी0एस0 की परीक्षा को पास करके भी दिखा दिया। ऐसे महान व्यक्ति को इन पंक्तियों के साथ श्रद्धांजलि दी जा सकती है कि ‘शाखों से टूट जायें, पत्ते नहीं हैं हम। आँधियों से कह दो औकात में रहें।।’
(बाएं से डॉ वीरेन्द्र सिंह यादव, डॉ आनंद खरे)


परिचर्चा में रविकांत, रणविजय सिंह, सत चित आनन्द ने भी अपने विचार प्रकट किये। संचालन डा0 राममुरारी चिरवारिया ने किया।






कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें